छुट्टियां घर में बिताकर
मैं जान गई हूं
कि सबसे मीठा स्थान
अपना घर होता है।
और सबसे कीमती खजाना
परिजनों का प्यार होता है।
किंतु सच यह भी है
कि सबसे सुकूनदेह स्थल
विद्यालय का आंगन होता है।
और सबसे शानदार कक्षा
आजाद मुस्कानों से सजी होती है।
मैं अब समझ सकी हूं
कि बेहतर है शिक्षार्थी बने रहना
नित सिखती हूं निःस्वार्थ देना
उन्हीं विभोर न्योछावर बच्चों से
जो मेरे छात्र होते हैं।
और अब अकल आई है
कि खूब-पढ़ा लिखा होने से
कहीं लाख दर्जे बेहतर है
निश्छल प्रेम ही हो जाना
और सबसे बुरा है
ठुकराना, तिरस्कार करना।
हां, मैंने अब जाकर जाना
कि बेशकीमती है मासूमियत
जो ठहरी हुई है शरारत के मुख पर
और ताकतवर है बहुत
बचपन का बेलौस अल्हड़पन।
मैं अक्सर रीझती हूं
ऊंघते -सोते बेपरवाह बच्चों पर
कितनी बेफिक्री है इनके पास
काश! ये ऐसे ही बची रहती
कौन-सा कक्षा की गिटिर-पिटिर
बच्चों को मनुष्य बना ही देती है।
और खुद को दोषी देखती हूं
जब किसी सोते-ऊंघते बच्चे को
जबरन झंझोड़ कर जगाती हूँ
क्या मैं कसाई नहीं हूँ
मेरे हिस्से में तो निगहबानी है न
नौनिहालों के चैन को फिर
चोट क्यों पहुंचाती हूँ।
रस नहीं मिला मेरी कक्षा में
इसलिए ही ऊंघकर सोए होंगे
या फिर दिमाग में भरी नासमझी
इन्कार कर गयी लेने से ज्ञान
सचमुच सिखाने का सारा उपक्रम ही
कहीं दोषी तो नहीं है इन सबका

और हम तोहमतें लिए
नौनिहालों पर ऊंगली उठा रहे हैं
हुनर सीखने वाले हाथों को
खामखां बेकार बतला रहे हैं
इसलिए मैं कोफ्त से भर जाती हूं।
फिर मैं प्रेम हो जाना चाहती हूं
क्योंकि मैं जान चुकी हूं
कि जरूरी है मुस्कुराना
आजाद खिलखिलाना और
इस तरह ही सीखना सीखेंगे वो।
हां, बेशक सबसे सुंदर तकनीक है
जो जोड़ती है एक सूत्र में
सीखने और सिखाने वाले को
इसी सूत्र से बंधती है आस की डोर
जो विद्या के आँगन में ले जाती है।
फिर से वो दिन करीब हैं
जब बंधने और बांधने का दौर
हंसने और मुस्कुराने की घड़ियां
सीखने और सिखाने के पलों से
रहेंगे गुलजार विद्यालय का आंगन।
लेखिका : स्मिता श्री, उत्क्रमित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, असुरारी, बरौनी, बेगूसराय