Bihar Education Reforms : गांव के सरकारी विद्यालयों को लेकर लोगों की उम्मीदें अक्सर कम ही होती हैं। सालों तक यह शिकायत बनी रही कि न शिक्षक समय पर आते हैं, न बच्चों को कुछ सिखाया जाता है, और न ही स्कूल का कोई हाल पूछता है। लेकिन बिहार में पिछले वर्षों से एक नई कहानी लिखी जा रही है, एक ऐसी कहानी जिसमें स्कूल की घंटी केवल समय नहीं बताती, बल्कि बदलाव की दस्तक देती है।
इस बदलाव की शुरुआत किसी अभियान से नहीं, बल्कि एक नजर से हुई…एक अफसर की नजर जिसने शिक्षा को केवल प्रशासनिक जिम्मेदारी नहीं, सामाजिक परिवर्तन का औजार समझा।
यह कहानी है डॉ. एस. सिद्धार्थ की, जो शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव के पद से स्थानांतरित होते हुए आज विकास आयुक्त का पद ग्रहण करने जा रहे हैं।

अपर मुख्य सचिव शिक्षा विभाग के पद पर ज्वाइन करते ही निपुण संवाद पत्रिका के माध्यम से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का बिगुल फूंकने वाले डॉ सिद्धार्थ ने कुछ ही दिनों में विद्यालय संचालन हेतु आठ पन्नों की मार्गदर्शिका को सभी प्रधानाध्यापकों के नाम प्रेषित किया और यहीं से शुरू होती है एक बदलते बिहार की कहानी।
शुरुआत का दृश्य याद कीजिए, एक सामान्य सी सुबह, जब किसी स्कूल के प्राचार्य के मोबाइल पर अचानक वीडियो कॉल आता है। एक तरफ स्क्रीन पर हैं स्वयं डॉ. एस. सिद्धार्थ। उन्होंने पिछले कुछ महीनों में सैकड़ों स्कूलों से इसी तरह अचानक किसी संपर्क के बिना किसी पूर्व सूचना के।
सिर्फ चार दिनों में 40 से अधिक स्कूलों को वीडियो कॉल के ज़रिए जांचा गया, जिनमें से 60% की स्थिति खराब पाई गई, कहीं शिक्षक अनुपस्थित थे, तो कहीं बच्चे। कुछ स्कूलों में तो छात्रों की उपस्थिति 20% से भी कम पाई गई । डॉ. सिद्धार्थ ने इस आंकड़ों को एक चेतावनी के रूप में लिया और समस्त शिक्षा व्यवस्था को कमांड एंड कंट्रोल सेंटर की बानगी के रूप में स्थापित कर दिया।

शिक्षा की स्थिति में सुधार की कल्पना तब तक नहीं की जा सकती जब तक अभिभावक का विद्यालयों से जुड़ाव न हो। इसी सोच के तहत डॉ सिद्धार्थ ने बिहार के सभी विद्यालयों में थीमेटिक वार्षिक कैलेंडर के अनुसार अभिभावक शिक्षक संगोष्ठी का आयोजन करवाना शुरू किया।
और आज की तारीख में यह संवाद एक संस्कृति के रूप में उग चुकी है।
2023 में शुरू की गई इस पहल के तहत अब अभिभावक केवल रिपोर्ट कार्ड देखने नहीं, बल्कि यह समझने विद्यालय आने लगे हैं कि उनके बच्चे के सर्वांगीण विकास में विद्यालय के साथ साथ उनकी भूमिका भी महत्वपूर्ण है। और इस तरह से शिक्षा अब ‘बोर्ड परीक्षा’ नहीं, ‘घर और स्कूल की साझेदारी’ बनने लगी ।

बड़े अधिकारियों से सीधे संवाद नहीं करने की परंपरा को तोड़ते हुए “शिक्षा की बात: हर शनिवार” कार्यक्रम की शुरुआत की गई। संभवतः देश में पहली बार ऐसा हुआ कि केवल शिक्षक ही नहीं, बल्कि बच्चे और अभिभावक भी निर्भीक होकर शिक्षा विभाग से सीधे प्रश्न पूछने लगे। यह संवाद किसी आदेश या निरीक्षण का हिस्सा नहीं था, बल्कि पारदर्शिता और सहभागिता की एक नई संस्कृति का आरंभ था। हर शनिवार 10 महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर देकर डॉ सिद्धार्थ ने एक नई इबारत लिखा, जिसमें सिस्टम को जवाबदेह बनाया गया, और समाज को सहभागी।
जब बच्चों, शिक्षकों और अभिभावकों का निर्भीक होकर अपनी बात कहने का मंच मिला, तो शिक्षा केवल पाठ्यपुस्तकों तक सीमित नहीं रही, बल्कि एक लोकतांत्रिक आंदोलन बनने लगी ।
बच्चों को घर में पढ़ने का कोना बनाने से लेकर, उन्हें प्रशंसा देना, शिक्षकों के लिए टीचर्स ऑफ द मंथ, बच्चों के लिए स्टूडेंट ऑफ द वीक की शुरुआत करना, जैसे छोटे-छोटे लेकिन असरदार कार्य बिहार की शिक्षा को क्रांति की ओर ले चला।

2025 की गर्मियों के बाद, जब छुट्टियों के बाद बच्चे स्कूल लौटे, तो पहली बार उन्होंने देखा कि उनका स्कूल सजाया गया है। दरवाज़ों पर रंगोली थी, दीवारों पर पोस्टर, और उनके स्वागत में शिक्षक खड़े थे।
‘टन टन घंटी बजी सुनो स्कूल तुमको पुकारे’ की धुन सुनते हैं सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाके की माताओं के द्वारा जल्दी जल्दी बेटी का चोटी बांधने लगना, पिता का ‘अरे शंभूआ कहां ही रे, इसकुलवा बोलाबित हऊ’ और अखबारों का यह लिखना कि गर्मी छुट्टी के बाद बिहार में पहली बार इतनी उपस्थिति देखी जा रही है, बिहार को एक नया आयाम प्रदान कर रहा था और यह था “स्वागत सप्ताह” बिहार में एक नई परंपरा की शुरुआत, जिसमें स्कूल बच्चों से यह कह रहा था: “तुम्हारा इंतज़ार था।”
यह आयोजन सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं था। यह उस मानसिक बदलाव का हिस्सा था जिसमें छात्र अब स्कूल को बोझ नहीं, उत्साह की जगह मानने लगे।

इन भावनात्मक पहलों के समानांतर डॉ. सिद्धार्थ ने शिक्षा तंत्र की रीढ़ को मज़बूत किया, निगरानी और जवाबदेही को डिजिटल रूप दिया। ‘ई-शिक्षाकोष’ नामक पोर्टल अब हर सरकारी स्कूल की पांच-पन्नों की निगरानी रिपोर्ट को ऑनलाइन सार्वजनिक करता है।
किस स्कूल में किताबें मिलीं, किस कक्षा में शिक्षक हैं, किस विद्यालय में पेयजल और शौचालय की व्यवस्था दुरुस्त है, ये सब अब कोई छुपी हुई जानकारी नहीं, बल्कि पारदर्शी प्रशासन की निशानी हैं।

पहले निरीक्षण का काम संविदा कर्मी करते थे, अब यह ज़िम्मेदारी सिर्फ 6 वरिष्ठ पदाधिकारियों तक सीमित कर दी गई है: DEO, DPO, PO, BEO आदि। यानी निगरानी में भी गुणवत्ता और जवाबदेही तय हो गई।डॉ. सिद्धार्थ को यह भी एहसास था कि यदि शिक्षक खुद शिक्षा में रुचि नहीं लेंगे, तो किसी योजना का असर नहीं होगा। इसलिए उन्होंने साफ निर्देश जारी किए, जो शिक्षक कक्षा में बच्चों को समय नहीं दे रहे, उन्हें सजा स्वरूप दूर-दराज क्षेत्रों में भेजा जाएगा।
बिहार में पहली बार ऐसा हुआ कि लगभग 1.3 लाख शिक्षकों को पारदर्शी और समयबद्ध तरीके से नई पोस्टिंग दी गई, और 30 जून 2025 तक जॉइनिंग सुनिश्चित करवाई गई। यह प्रक्रिया न तो राजनैतिक दखल से प्रभावित हुई, न ही बंद कमरों में तय हुई, यह सार्वजनिक थी और भरोसेमंद।

सिर्फ भावनात्मक माहौल बना देने से बदलाव नहीं आता, उसके लिए डेटा को भी साथ लाना होता है। यही वजह है कि डॉ. सिद्धार्थ की इन पहलों का असर अब आंकड़ों में भी दिखने लगा है। बिहार का शिक्षक-छात्र अनुपात (PTR) अब 28:1 हो चुका है, जो कि राष्ट्रीय औसत (35:1) से बेहतर स्थिति दर्शाता है। शिक्षा विभाग ने 2361 नए पदों को मंजूरी दी है, जिनमें EDO और AEDO जैसे निगरानी से जुड़ी जिम्मेदारियाँ तय की गई हैं। रिपोर्टों के अनुसार, बिहार के लगभग 75% स्कूलों में अब नियमित उपस्थिति और साप्ताहिक मूल्यांकन हो रहा है, जो 2022 तक केवल 40% के आसपास था।

डॉ. एस. सिद्धार्थ आज 1 सितंबर 2025 को बिहार के विकास आयुक्त का पद सँभालने जा रहे हैं। यह तारीख अब केवल एक प्रशासनिक सूचना नहीं है, यह बिहार की शिक्षा व्यवस्था के लिए एक चौकसी का क्षण है।
क्योंकि जो भी बदलाव अब तक हुआ, वह एक व्यक्तिगत निगरानी, दृढ़ इच्छाशक्ति और नीतिगत निष्ठा से संचालित था। सवाल यह है कि इनके बाद यह सिस्टम क्या उसी गर्मजोशी और जवाबदेही से चलेगा? क्या शिक्षक-प्रधानाध्यापक फिर से शिथिल हो जाएंगे? क्या ‘ई-शिक्षाकोष’ केवल फॉर्म भरने का औजार बनकर रह जाएगा?, क्या शिक्षा की बात हर शनिवार का मंच बिहार को मिलता रहेगा? या फिर, जो संस्कार उन्होंने इस व्यवस्था को दिए हैं, वो संस्कार इसे टिकाऊ बनाएंगे?
डॉ. एस. सिद्धार्थ की सबसे बड़ी ताक़त यह है कि वे बोलते कम हैं, और देखते-सुनते ज्यादा हैं। उनके निर्णयों में कोई दिखावा नहीं, कोई श्रेय लेने की जल्दबाज़ी नहीं, लेकिन उनके हर कदम में वह स्थायित्व है, जो किसी भी नीति को ज़मीन तक ले जाता है।

वह कहते हैं, “जब बच्चों की आंखों में डर की जगह सवाल हों, तो समझिए शिक्षा ने अपनी दिशा सही पकड़ी है।”
शायद यही कारण है कि अब बिहार में स्कूलों को देखकर लोग यह नहीं कहते कि “सरकारी स्कूल है” बल्कि कहते हैं, “सरकार ने सुधारा है।”
यह कहानी अब डॉ. सिद्धार्थ की नहीं, बिहार के हर शिक्षक, हर बच्चे और हर अभिभावक की कहानी है। वे अपने हिस्से की रोशनी दे चुके हैं, अब चुनौती इस रोशनी को जलाए रखने की है। संभवतः आने वाले वर्षों में कोई और अफसर उसी ईमानदारी से सिस्टम को आगे ले जाए या शायद, यह संस्कार व्यवस्था का हिस्सा बन जाए।
क्योंकि असली उद्देश्य तो यही है कि शिक्षा किसी व्यक्ति से नहीं, एक सोच से संचालित हो। और अगर यह सोच जिंदा रही, तो डॉ. सिद्धार्थ भले ही शिक्षा विभाग से स्थानांतरित हो जाएं, लेकिन उनका असर बिहार के स्कूलों की दीवारों पर सालों तक लिखा रहेगा।
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ये लेखक के विचार हैं।
लेखक : अमित कुमार सिंह (वर्तमान में PRP Group में Associate Manager हैं।)