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CAG की रिपोर्ट में 14.47% के साथ विकास की रफ्तार भी है, 71 हजार करोड़ की वित्तीय लापरवाही की खामोश गूंज भी

बिहार की विकास दर भले ही देश से तेज़ रही हो, लेकिन सरकार अब भी 71 हजार करोड़ रुपये के खर्च का हिसाब देने में नाकाम रही है।

Bihar Wings Analysis : बिहार अब वह राज्य नहीं रहा जिसे सिर्फ पिछड़ेपन और पलायन की कहानियों से पहचाना जाए। हालिया CAG रिपोर्ट बताती है कि राज्य ने विकास की रफ्तार में देश को पीछे छोड़ दिया है। 14.47% की विकास दर के साथ यह राष्ट्रीय औसत से करीब 5 फीसदी आगे है। लेकिन इस तेज़ रफ्तार के पीछे एक और सच्चाई छिपी है, जो उतनी ही चुभने वाली है। राज्य सरकार के पास 71 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की योजनाओं का कोई हिसाब नहीं है। यानी विकास तो हुआ, मगर कैसे हुआ और कहां हुआ—इसका सबूत अधूरा है। यह विरोधाभास बिहार की मौजूदा आर्थिक व्यवस्था की सबसे बड़ी पहचान बनता जा रहा है।

CAG रिपोर्ट का पहला पन्ना जहां इस उपलब्धि पर रोशनी डालता है कि बिहार ने 2023-24 में 14.47% की विकास दर हासिल की—जो कि बीते वर्ष 15.30% थी। वहीं रिपोर्ट के भीतर जैसे-जैसे आंकड़े खुलते हैं, तस्वीर धुंधलाती जाती है। एक ओर यह कहा गया है कि राज्य की प्रति व्यक्ति जीएसडीपी अब ₹66,828 तक पहुंच गई है, दूसरी ओर इसी वर्ष राज्य की कुल देनदारियां 3.98 लाख करोड़ तक जा पहुंची हैं। हां, यह बात ज़रूर है कि ये देनदारियां तय सीमा के भीतर हैं, लेकिन राज्य 15वें वित्त आयोग के मानकों को इस साल भी हासिल नहीं कर पाया। यह साफ करता है कि विकास हो रहा है, मगर नियोजन में अब भी कुछ अधूरापन है।

इस आर्थिक ग्रोथ के पीछे सबसे बड़ा योगदान सेवा क्षेत्र का रहा है, जिसने अकेले 57% से अधिक हिस्सेदारी दी। अस्पताल, स्कूल, परिवहन, बैंकिंग जैसी सेवाओं ने बिहार की तरक्की में नई ऊर्जा दी है। इसके बाद प्राथमिक क्षेत्र—जिसमें कृषि और पशुपालन जैसी गतिविधियां शामिल हैं—ने 24% और निर्माण से जुड़े द्वितीयक क्षेत्र ने 18% की हिस्सेदारी निभाई। लेकिन यहां एक भावनात्मक तथ्य भी छिपा है। राज्य की सबसे बड़ी जनसंख्या अब भी उन्हीं खेतों से जुड़ी है जिनकी विकास दर बाकी क्षेत्रों से काफी पीछे है। यानी सेवा क्षेत्र का विकास ऊपर से चमकदार है, मगर जड़ों में आज भी पुरानी बेड़ियां हैं।

राजस्व की बात करें तो 2023-24 में 11.96% की बढ़ोतरी हुई, जिससे राज्य को 20,659 करोड़ रुपये की अतिरिक्त आमदनी हुई। केंद्र से मिलने वाले हिस्से में 9.87% और राज्य के अपने कर व गैर-कर संग्रहण में 25.14% की वृद्धि दर्ज हुई। लेकिन इसके साथ ही एक सवाल भी उभरता है—अगर आय बढ़ रही है, तो खर्च के बाद उसका ब्यौरा क्यों नहीं दिया जा रहा? यह सवाल तब और गंभीर हो जाता है जब रिपोर्ट यह भी बताती है कि प्रतिबद्ध व्यय—जिसमें सैलरी, पेंशन और ब्याज शामिल हैं—लगातार बढ़ रहा है। 2019-20 में जहां यह 48 हजार करोड़ था, वहीं 2023-24 में यह 70 हजार करोड़ के पार चला गया।

और यहीं से वह दूसरा चेहरा सामने आता है, जो इस रिपोर्ट को सिर उठाकर पढ़ने की बजाय सिर झुकाकर सोचने को मजबूर करता है। 2023-24 में बिहार सरकार ने 49,649 करोड़ रुपये की योजनाओं का खर्च किया, लेकिन उसका उपयोगिता प्रमाण-पत्र अब तक CAG को नहीं सौंपा। मतलब साफ है—पैसा खर्च हुआ, लेकिन यह नहीं बताया गया कि कहां और कैसे। और यह सिलसिला सिर्फ इसी वर्ष का नहीं है। बीते वर्षों से बढ़ते-बढ़ते अब यह आंकड़ा 70,877 करोड़ रुपये तक जा पहुंचा है। इनमें से अकेले पंचायती राज विभाग ने 28,154 करोड़, शिक्षा विभाग ने 12,623 करोड़, नगर विकास विभाग ने 11,065 करोड़, और ग्रामीण विकास विभाग ने 7800 करोड़ की योजनाओं का हिसाब नहीं दिया है।

यह स्थिति न सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही को उजागर करती है, बल्कि यह भी संकेत देती है कि इतनी बड़ी रकम के गबन की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। यही कारण है कि CAG ने इस पर सीधा सवाल उठाते हुए कहा है कि यह वित्तीय अनुशासनहीनता भविष्य के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। रिपोर्ट में यह भी दर्ज है कि बिहार राज्य पथ विकास निगम को बिना बजटीय प्रावधान के 53.48 करोड़ रुपये का कर्ज दे दिया गया, जो नियमों की खुली अनदेखी है।

इतना ही नहीं, रिपोर्ट ने उन योजनाओं पर भी उंगली उठाई है जिनमें पूरे साल कुछ नहीं हुआ और फिर मार्च आते-आते अचानक सारी राशि खर्च कर दी गई। ऐसी 30 योजनाओं की पहचान की गई है, जिनमें 100% खर्च केवल मार्च में किया गया। इनमें 182 करोड़ की लघु उद्यम योजना, 2969 करोड़ के ऋण भुगतान, और 158 करोड़ की कोसी बाढ़ पुनर्वास योजना जैसे मद शामिल हैं। यह कामकाज की वो शैली है जो सिर्फ “फंड खत्म करो” मानसिकता को दर्शाती है, न कि गुणवत्ता या परिणाम को।

इन तमाम तथ्यों के बीच यह सवाल अहम हो जाता है—क्या बिहार वाकई तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, या हम महज आंकड़ों के आईने में चमक देख रहे हैं? क्योंकि विकास सिर्फ दरों में नहीं, जवाबदेही में भी मापा जाता है। और जब करोड़ों खर्च होने के बावजूद प्रमाण गायब हों, तो इस चमक में अंधेरे की परछाईं साफ दिखने लगती है।

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