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गोलघर और गंगा : बिहार के सपनों की पहचान, लेकिन सच्चाई के आईने में एक विडंबना

राजनीति गोलघर बन चुकी है—अंदर की ओर बंद और नेता गंगा जैसे बनने का दावा करते हैं, पर बहाव में केवल वादे और आरोप-प्रत्यारोप तैरते हैं।

“बिहार के सपनों की गंगा पवित्र है, लेकिन सच्चाई का पानी गंदा है।” यह पंक्ति केवल एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि बिहार के अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच पसरी उस गहरी खाई की प्रतीक है, जिसे समझने के लिए हमें दो ऐतिहासिक और सांस्कृतिक प्रतीकों-गोलघर और गंगा—की ओर देखना होगा।

ये दोनों न केवल पटना की भौगोलिक पहचान हैं, बल्कि बिहार की सामाजिक चेतना, ऐतिहासिक स्मृति और सांस्कृतिक आत्मा के स्थायी चिन्ह हैं। एक ओर गोलघर, जो जुलाई 1786 से अडिग खड़ा है-238 वर्षों का साक्षी, और दूसरी ओर गंगा, जो सतत प्रवाहित होकर जीवन की निरंतरता का प्रतीक बनी हुई है।

पटना आने वाला हर पर्यटक, देशी हो या विदेशी, अनायास ही गोलघर और गंगा की ओर आकर्षित होता है। दोनों के बीच चंद कदमों की दूरी है, लेकिन उनके स्वभाव और संदेश में ज़मीन-आसमान का अंतर है।

गोलघर जहां समय की ठहरी हुई स्मृति है, वहीं गंगा बहते जीवन की प्रेरणा। गोलघर को देखकर लगता है मानो समय ठहर गया हो, जबकि गंगा को निहारने पर लगता है कि जीवन कभी रुकता नहीं।

गोलघर: सपनों का प्रतीक या सच्चाई की ऐतिहासिक भूल?

गोलघर का निर्माण ब्रिटिश शासन के दौरान 1770 के भीषण अकाल के बाद कराया गया था। कहा जाता है कि यह अनाज भंडारण के लिए बना, लेकिन वास्तविकता में यह ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा लूट की सुनियोजित योजना का हिस्सा था।

इस गुंबदनुमा संरचना की सबसे बड़ी भूल इसकी बनावट में थी-दरवाजे भीतर की ओर खुलते थे। यदि यह पूरी तरह से अनाज से भर दिया जाता, तो दरवाजे नहीं खुल पाते। और यही हुआ भी। जब यह त्रुटि समझ आई, तब दरवाजे तोड़ने पड़े, और अनाज के तेज बहाव में कई लोग घायल भी हुए।

आज का गोलघर भी बिहार के उसी सपने का प्रतीक है, जिसके सत्य के द्वार भीतर की ओर खुलते हैं। जब तक संघर्ष न हो, तब तक वे दरवाज़े नहीं खुलते। यही हाल आज बिहार के विकास का भी है-योजनाएं बनती हैं, घोषणाएं होती हैं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई तक पहुंचते-पहुंचते सब कुछ ठहर सा जाता है।

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गंगा: आस्था की नदी, सच्चाई का आईना

गंगा केवल नदी नहीं, बल्कि बिहार की आत्मा है। यह आस्था, संस्कृति और आध्यात्मिक चेतना की प्रतीक है। किंतु दुखद सच्चाई यह है कि यह पुण्यसलिला आज प्रदूषण की शिकार हो चुकी है।

‘नमामि गंगे’ जैसी सरकारी योजनाएं चलती रहीं, परंतु गंगा के जल में गंदे नालों और अपशिष्ट का प्रवाह आज भी बेरोकटोक जारी है।

बिहार के सपनों की गंगा भले ही भावना के स्तर पर पवित्र हो, लेकिन सच्चाई यह है कि उसके पानी में आज सियासत, प्रशासनिक लापरवाही और योजनात्मक असफलताओं की गंदगी घुल चुकी है।

दो प्रतीक, एक सच्चाई :

गोलघर और गंगा – दोनों ही बिहार की पहचान हैं।
एक ठहरा हुआ इतिहास, और दूसरी बहती हुई आस्था।
लेकिन दोनों की वर्तमान स्थिति आज सोचने को मजबूर करती है।

गोलघर, जो कभी अनाज से भरने के लिए बना था, आज सिर्फ पर्यटकों के लिए एक दर्शनीय स्थल बन गया है।
गंगा, जिसमें कभी श्रद्धालु पवित्रता के लिए डुबकी लगाते थे, आज प्रदूषण की लहरों में कराह रही है।

प्रतीकों से प्रतिकार तक :

बिहार के सपनों और उसकी सच्चाई के बीच यह विरोधाभास कब खत्म होगा?
क्या हम गोलघर की ऐतिहासिक भूलों से सीखेंगे?
क्या गंगा की पवित्रता सिर्फ भावना तक सीमित रहेगी या उसे बचाने के लिए ठोस कदम उठाए जाएंगे?

या फिर यह सब भी बिहार की वर्तमान राजनीति की तरह ही होता रहेगा—जहां घोषणाओं की गंगा तो बहती है, लेकिन सच्चाई का पानी वही पुराना और गंदा बना रहता है।

राजनीति गोलघर बन चुकी है—अंदर की ओर बंद।
और नेता गंगा जैसे बनने का दावा करते हैं, पर बहाव में केवल वादे और आरोप-प्रत्यारोप तैरते हैं।

जब तक सपनों के दरवाज़े बाहर की ओर नहीं खुलते और नालों की गंदगी बंद नहीं होती, तब तक “बिहार के सपनों की गंगा पवित्र है… लेकिन सच्चाई का पानी गंदा ही रहेगा।”

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